भारतीय पर्व और परम्पराओ का वैज्ञानिक विश्लेषण-२५

टेन न्यूज नेटवर्क

ग्रेटर नोएडा (22/03/2022): नाग पंचमी

नाग पंचमी भारत में मनाया जाने वाला एक पर्व है जो सावन माह की शुक्ल पक्ष के पंचमी को नाग पंचमी के रूप में मनाया जाता है।
प्रचलित मान्यता: इस दिन कहीं-कहीं सर्प को दूध पिलाते है की नाग देवता खुश होकर उनको आशीर्वाद देंगे। इस दिन वाराणसी (काशी में नाग कुआँ नामक स्थान पर बहुत बड़ा मेला लगता है , किंवदन्ति है कि इस स्थान पर तक्षक गरूड़ जी के भय से बालक रूप में काशी संस्कृत की शिक्षा लेने हेतु आये परन्तु गरूड़ जी को इसकी जानकारी हो गयीऔर उन्होंने तक्षक पर हमला कर दिया परन्तु अपने गुरू जी के प्रभाव से गरूड़ जी ने तक्षक नाग को अभय दान कर दिया उसी समय से यहाँ नाग पंचमी के दिन से यहाँ नाग पूजा की जाती है

यह मान्यता है कि जो भी नाग पंचमी के दिन यहाँ पूजा अर्चना कर नाग कुआँ का दर्शन करता है उसकी जन्मकुन्डली के सर्प दोष का निवारण हो जाता है।
कई बहनें कोकिला-व्रत करती हैं। कोयल के दर्शन हो अथवा उसका स्वर कान पर पड़े तब ही भोजन लेना ऐसा यह व्रत है। हमारे यहाँ वृषभोत्सव के दिन बैल का पूजन किया जाता है। वट-सावित्री जैसे व्रत में बरगद की पूजा होती है परन्तु नाग पंचमी जैसे दिन नाग का पूजन करते हैं. नाग के इस डर से नागपूजा शुरू हुई होगी, ऐसा कई लोग मानते हैं

प्रचलित कथा का विश्लेषण:
। जो कहानिया इस पर्व को लेकर सुरु की गयी है वे सभी असत्य और बिना प्रमाण के है। गाय, बैल, कोयल इत्यादि का पूजन करके उनके साथ आत्मीयता साधने का हम प्रयत्न करते हैं, क्योंकि वे उपयोगी हैं। लेकिन नाग हमारे किस परन्तु यह मान्यता हमारी संस्कृति से सुसंगत नहीं लगती।
नाग पंचमी के नाम पर अंधविस्वास व अधर्म :
भारत मे नाग पंचमी के दिनों सांपो को दूध पिलाने की परंपरा चालू हो गयी है जो कि वैदिक सिद्धान्तों और वैज्ञानिक आधार के प्रतिकूल है।
’सांप एक वन्य जीव है और उसका भोजन चूहे छिपकिली आदि जीव है , दूध नही।’
विज्ञान के अनुसार भी सांप दूध नही पीता है न ही उसे अच्छा लगता है। किंतु कुछ लोगो ने अपना पेट भरने के बहाने उसे दूध पिलाने का गलत रिवाज चालू कर दिया है। शरीर विज्ञान कहता है कि सांप को दूध पीना नही आता, और उसको जबर्दस्ती दूध पिलाने से उसकी श्वास नली बाधित हो जाती है और उससे उसकी मौत भी हो जाती है दूध पीने से उसको अनेक रोग भी हो जाते हैं। फिर भी बलात उसे दूध पिला कर सपेरे अपना व्यवसाय करते हैं ।
अपने व्यापार के लिए उनको जंगलों से ढूंढ ढूंढ कर पकड़ते है, उसको कई दिनों तक भूखा प्यासा रखते है, उसके विष के दांत निकाल देते हैं और फिर उस असहाय सड़को के किनारे दूध पिलाने का नाटक करके नादान लोगो से अंध भक्तों से पैसे ऐंठते है।ये सब पाप नही तो क्या है?
सांप को दुध पिलाने से अच्छा है हम वन्य जीवों का संरक्षण करे और दूध किसी गरीब बेबस लाचार बच्चों को पिलाये तो हमे पुण्य मिलेगा और समाज का उत्थान भी होगा।
पूजा का अर्थ : किसी भी वस्तु का सही सही ज्ञान और उसका यथायोग्य उपयोग होता है यहां हम प्रकृति व विज्ञान के विरुद्ध आचरण करते है और उसको पूजा मानते हैं जो कि सरासर गलत है।’ अतः हमें ऐसे ढोंग अंधविश्वास व पाखण्डों से बचना चाहिए और समाज को बचाना चाहिए।
पूजा का अर्थ किसी भी वस्तु का सही सही ज्ञान और उसका यथायोग्य उपयोग होता है यहां हम प्रकृति व विज्ञान के विरुद्ध आचरण करते है और उसको पूजा मानते हैं जो कि सरासर गलत है। अतः हमें ऐसे ढोंग अंधविश्वास व पाखण्डों से बचना चाहिए और समाज को बचाना चाहिए।
वास्तविकता: नाग शब्द के अनेक अर्थ हो सकते है और यहाँ सही अर्थ का प्रयोग ना करके अज्ञानियों ने अनर्थ कर दिया है। नाग शब्द संस्कृत से लिया जिको प्राण वायु के लिए प्रयोग किया गया है।
वेद में ३३ कोटि के देवता बताये गए है जो इस प्रकार है:
वेदों में 33 कोटि का अर्थ 33 करोड़ नहीं बल्कि 33 प्रकार (संस्कृत में कोटि शब्द का अर्थ प्रकार होता है) के देवता हैं । और ये शतपथ ब्राह्मण में बहुत ही स्पष्टतः वर्णित किये गए हैं, जो कि इस प्रकार है:
8 वसु (पृथ्वी, जल, वायु , अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र ), जिनमे सारा संसार निवास करता है ।
10 जीवनी शक्तियां अर्थात प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त , धनञ्जय ), ये तथा 1 जीव ये ग्यारह रूद्र कहलाते हैं
12 आदित्य अर्थात वर्ष के 12 महीने
1 विद्युत् जो कि हमारे लिए अत्यधिक उपयोगी है
1 यज्ञ अर्थात मनुष्यों के द्वारा निरंतर किये जाने वाले निस्वार्थ कर्म ।
शतपथ ब्राहमण के 14 वें कांड के अनुसार इन 33 देवताओं का स्वामी परमपिता परमात्मा ( महावेव } ही एकमात्र उपासनीय है ।
हमारे शाश्त्रो में प्राण को विभिन्न गतिया देवदत्त,कूर्म ,धनञ्जय ,कृकल आदि विभिन्न प्राण की स्थितिया है जैसे प्राण जिसके द्वारा जँभाई आती है , प्राण जिसके द्वारा पलक झपकती है ,नियंत्रण में रहती है आदि। इनको विभिन्न नाम दिए गए है जैसे प्राण, अपां , उड़ान , धनञ्जय ,नाग ,कूर्म ,देवदत्त आदि और इन सभी को ३३ कोटि देवताओ में गिना गया है।
सांस की नाग के सामान गति का महाभारत में भी उल्लेख हुआ है। इसलिए यहाँ नाग शब्द का भावार्थ स्वांस ध्प्राण की गति से है।
पाँच प्राण व पाँच उपप्राण वर्णन -यहाँ पर प्राणो की गति के लिए नाग शब्द का प्रयोग हुआ है।
प्राणोऽपानः समानश्चोदानव्यानौ तथैव च ।
नागः कूर्मश्च कृकलो देवदत्तो धनञ्जयः ।। 59 ।।
भावार्थ:- प्राण, अपान, समान, उदान व व्यान ये पाँच प्राण होते हैं । नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त व धनञ्जय ये पाँच उपप्राण होते हैं ।
विशेष:- प्राण कितने प्रकार के होते हैं ? उत्तर है पाँच । उपप्रानों की संख्या कितनी होती है ? उत्तर है पाँच ।
प्राणों को उनकी शरीर में स्थिति के अनुसार आरोही क्रम ( बढ़ते क्रम अथवा नीचे से ऊपर की ओर ) में व्यवस्थित करें दृ जिसका उत्तर है व्यान, अपान, समान, प्राण व उदान । प्राणों को शरीर में उनकी स्थिति के अनुसार अवरोही क्रम ( ऊपर से नीचे ) में रखें दृ जिसका उत्तर है उदान, प्राण, समान, अपान व व्यान ।
प्राणों का सामान्य क्रम क्या होता है ? उत्तर है प्राण, अपान, समान, उदान व व्यान ।
प्राणों का उपप्राणों से सम्बंध:-
प्राण का उपप्राण क्या होता है ? उत्तर नाग । अपान प्राण का उपप्राण क्या होता है ? उत्तर कूर्म । समान प्राण का उपप्राण क्या है ? उत्तर कृकल । उदान प्राण का उपप्राण कौन सा है ? उत्तर देवदत्त । व्यान प्राण का उपप्राण क्या है ? उत्तर धनञ्जय ।
कौन सा प्राण शरीर में कहाँ पर स्थित है ?
हृदि प्राणो वहेन्नित्यमपानो गुदामण्डले ।
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः ।। 60 ।।
व्यानो व्याप्त शरीरे तु प्रधानाः पञ्च वायवः ।
प्राणाद्याः पञ्च विख्याता नागाद्याः पञ्च वायवः ।। 61 ।।
भावार्थ:- प्राण हृदय प्रदेश में, अपान गुदा प्रदेश में, समान नाभि प्रदेश में, उदान कण्ठ प्रदेश में व व्यान सम्पूर्ण शरीर में गमन अथवा स्थित होता है ।
इनमें से पाँच प्राण, अपान, समान, उदान व व्यान मुख्य होते हैं और नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त व धनञ्जय उपप्राण गौण होते हैं ।
विशेष:- प्राण शरीर के किस भाग में होता है ? उत्तर है हृदय प्रदेश में । अपान प्राण का स्थान कहाँ पर है ? उत्तर है गुदा प्रदेश । समान प्राण का स्थान कहाँ पर होता है ? उत्तर नाभि प्रदेश में । उदान प्राण कहा स्थित है ? उत्तर है कण्ठ अथवा गले में । व्यान प्राण की स्थिति बताइये ? उत्तर है सम्पूर्ण शरीर में ।
पाँच उपप्राणों का शरीर में क्या- क्या कार्य होते हैं ?
तेषामपि च पञ्चानां स्थानानि च वदाम्यहम् ।
उद्गारे नाग आख्यातः कूर्मस्तून्मीलने स्मृतः ।। 62 ।।
कृकलः क्षुत्कृते ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे ।
न जहाति मृते क्वापि सर्वव्यापी धनञ्जयः ।। 63 ।।
भावार्थ:- अब जो पाँच प्रकार के उपप्राण हैं उनके शरीर में स्थिति का वर्णन करता हूँ । डकार में नाग वायु, आँखों के खुलने व बन्द होने में कूर्म वायु, छीकनें में कृकल वायु, जम्भाई लेने में देवदत्त वायु व जो मरने के भी कुछ समय तक शरीर में ही स्थित रहती है वह धनञ्जय नामक वायु होती है ।
विशेष:- डकार किस प्राण के कारण आती है ? उत्तर नाग । आँखों को खोलने व बन्द करने में किस प्राण का योगदान होता है ? उत्तर कूर्म । कृकल वायु का क्या कार्य होता है ? उत्तर छीकने का । देवदत्त प्राण का क्या कार्य होता है ? जम्भाई लेना । वो कौन सी वायु अथवा प्राण है जो मरने के बाद भी कुछ समय तक शरीर में ही रहता है ? उत्तर धनञ्जय ।
उपप्राणों के शरीर में कार्य
नागो गृह्णाति चैतन्यं कूर्मश्चैव निमेषणम् ।
क्षुत्तुषं कृकलश्चैव जृम्भणं चतुर्थेन तु ।
भवेद्धनञ्जयाच्छब्दं क्षणमात्रं न निःसरेत् ।। 64 ।।
उपप्राण:-
1 नाग – डकारना
यह प्राण और अपान के मध्य उत्पन्न रुकावटों को दूर करता है और पाचन तन्त्र में वात (गैस) का बनना रोकता है। डकार को लगातार रोके रखने से हृदय-तन्त्र में गड़बड़ी हो सकती है। अन्य क्रियाओं में अपचन के कारण मितली को रोकने और समान प्राण के अवरोधों का हल करना सम्मिलित है।
२. कूर्म:-इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है , यह नेत्रा गोलकों में रहता हुआ उन्हे दाएँ -बाएँ , ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने
की किया करता है । आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है ।
३. कूकल:-यह मुख से ह्रदय तक के स्थान में रहता है तथा जृम्भा ( जंभाई =उबासी ) , भूख , प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है ।
४. देवदत्त:-यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है । इसका कार्य छिंक , आलस्य , तन्द्रा , निद्रा आदि को लाने का है ।
५. धनज्जय:- यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहता है , इसका कार्य शरीर के अवयवों को खिचें रखना , माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है । शरीर में से जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी बाहर निकल जाता है , फलतः इस प्राण के अभाव में शरीर फूल जाता है ।
जब शरीर विश्राम करता है , ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है, मन शांत हो जाता है । तब प्राण और जीवात्मा जागता है । प्राण के संयोग से जीवन और प्राण के वियोग से मृत्यु होती है । जीव का अंन्तिम साथी प्राण है ।
विधि: इस पर्व को कैसे मनाये: उपरोक्त से स्पष्ट है की नाग पंचमी का वास्तविक ५ उप प्राणो से है और इनके विषय में जाग्रति लेन और अभ्यास हेतु ये दिन निर्धारित किया गया है। लेकिन अज्ञानता वश नाग जो की उपप्राण का नाम है उसको नाग सर्प से जोड़ दिया।
नाग पंचमी के ही दिन अनेकों गांव व कस्बों में कुश्ती का आयोजन होता है जिसमें आसपास के पहलवान भाग लेते हैं। गाय, बैल आदि पशुओं को इस दिन नदी, तालाब में ले जाकर नहलाया जाता है।
प्रातः उठकर घर की सफाई कर नित्यकर्म से निवृत्त हो जाएँ।पश्चात स्नान कर साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करें। स्वच्छ वायु स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है, किन्तु मात्र वायु के आधार पर ही स्वास्थ्य अच्छा होना कोई कारण नहीं है। कुछ लोग रुग्ण हो जाते हैं, यद्यपि वे बहुत समय स्वच्छ वायु में ही रहते हैं।
आसनों और प्रणायामों के अभ्यास से इडा एवं पिंगला नाडियां सुव्यवस्थित होती हैं और इसका सभी 72,000 नाडियों पर ऊर्जा प्रवाह का शुद्ध, दृढ़ और सन्तुलनकारी प्रभाव होता है। प्राणायाम और ध्यान के अभ्यास सुषुम्ना नाड़ी में ऊर्जा-प्रवाह को बढ़ाते हैं। जब आध्यात्मिक ऊर्जा सुषुम्ना में प्रवाहित होती है विशेष मस्तिष्क केन्द्र और चक्र सक्रिय हो जाता है, जो हमारी चेतना का विकास और विस्तार उच्चतर आध्यात्मिक स्तर तक कर देते हैं।
जितने अधिक कोष निष्क्रिय हो जाते हैं, व्यक्ति उतना ही अधिक कमजोर हो जाता है और जल्दी ही वृद्धावस्था की ओर जाने लगता है। जब प्राण का प्रवाह सीमित हो जाता है, परिणाम वही होता है। प्राण का प्रवाह उन चिन्ताओं से प्रभावित होता है जो हम स्वयं ही उत्पन्न कर लेते हैं। हम जितने अधिक शोकाकुल या अवसादग्रस्त होंगे, प्राण का प्रवाह भी उतना ही कमजोर होगा, जिससे हम रोगग्रस्त हो जायेंगे और वृद्ध होने की प्रक्रिया तेजी से चलने लगती है। दूसरी ओर, वे हैं जो सन्तुलित और जीवन स्फूर्ति को प्रसारित करते हैं, और उनका सामर्थ्य बढने से मानव बन्धुओं को भी आकर्षित करने लगते हैं। अतः हमें सदैव सार्थक प्राण प्रसारित करना चाहिए।
कुछ निश्चित व्यायाम विधियां विशेष प्राण-शक्ति को सक्रिय करती हैं, ये हैं भस्त्रिका, नाड़ी-शोधन और उज्जायी – प्राणायाम। ये इस पर्व का सन्देश है।
१ सूर्यभेदी प्राणायाम की पूर्णता
सर्वे ते सूर्यसम्भिन्ना नाभिमूलात् समुद्धरेत् ।
इडया रेचयेत् पश्चाद् धैर्येणाखण्डवेगतः ।। 65 ।।
भावार्थ:- उन सभी ( प्राण व उपप्राणों ) को सूर्यभेदी प्राणायाम द्वारा नाभि से ऊपर उठाकर उनको धैर्य के साथ बायीं नासिका से वेगपूर्वक बाहर निकाल देना चाहिए ।
पुनः सूर्येण चाकृष्य कुम्भयित्वा यथाविधि ।
रेचयित्वा साधयेत्तु क्रमेण च पुनः पुनः ।। 66 ।।
भावार्थ:- इसके बाद फिर से दायीं नासिका से वायु को अन्दर भरकर उसे उसी विधि के अनुसार अन्दर ही रोकते हुए बाहर निकाल दें । इस प्रकार साधक को इस सूर्यभेदी प्राणायाम का बार- बार अभ्यास करना चाहिए ।
सूर्यभेदी प्राणायाम के लाभ

कुम्भकः सूर्यभेदस्तु जरामृत्युविनाशकः ।
बोधयेत् कुण्डलीशक्तिं देहानलं विवर्धयेत् ।
इति ते कथितं चण्ड सूर्यभेदनमुत्तमम् ।। 67 ।।
भावार्थ:- सूर्यभेदी प्राणायाम के अभ्यास से साधक बुढ़ापे व मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है । कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है व जठराग्नि प्रदीप्त होती है ।
२ रेचक -कुम्भक -पूरक प्राणायाम: एक दिन में कई बार निम्नलिखित श्वास व्यायाम करने की भारी अभिशंसा की जाती है:-
गहरा पूरक और रेचक एक बार करें।
फिर पूरक करें। यथा सम्भव देर तक श्वास को रोके रखें (20, 30 तक गिनती करें)
रेचक करें और कुछ समय के लिए फिर श्वास को रोक लें
इस व्यायाम को 4-5 बार दोहरायें।
इस सरल श्वास व्यायाम का लाभ जल्दी दिखाई पड़ता है और हमारी नाडियां सचमुच आभारी होती हैं।
३ भ्रमरी प्राणायाम विधि
कानों को अंगुलियों से बन्द कर लें और पूरक करें। नाक से रेचक करते समय भौंरे जैसी गूँज करें (मुख बन्द रहेगा)।
5-7 श्वासों के बाद निश्चल बैठ जायें और कानों को बन्द रखते हुए ही सामान्य श्वास लें। अपने आन्तरिकआकाश पर चित्त एकाग्र करें और आन्तरिक ध्वनि सुनें।
यह व्यायाम नाडियों और विचारों को शान्त करेगा, एकाग्रता को बढ़ायेगा और आपको अपने स्व (आत्मा) के सम्पर्क में ले जाएगा।
एक ऐसा व्यायाम है, जिसके माध्यम से हम हाथों में प्राण को स्पष्ट रूप से महसूस कर सकते हैं।
बाजुओं को शरीर के बाहर की ओर फैलाएं, जिसमें हथेलियां सामने की ओर हों। बाजुओं को सीधा रखें और उनको अर्द्ध-वृत्त में शरीर के सामने घुमायें, धीरे-धीरे हथेलियों को एक-दूसरे के सामने लायें। पूरी तरह तनावहीन रहें, धीरे-धीरे हाथों के बीच की दूरी कम करें। ज्योंही हथेलियां पास आएंगी, आप हाथों के बीच सनसनी बढ़ती हुई पायेंगे, या हथेलियों में पिन या सुइयों की चुभन महसूस करेंगे। हथेलियों को इतना निकट लायें कि उनके बीच की दूरी मात्र एक सेन्टीमीटर ही रह जाये। अब, चूंकि यह ऊर्जा आपके हाथों में धारा के रूप में प्रवाहित होती है, ऐसा अनुभव होता है जैसे वास्तव में दोनों हाथ एक-दूसरे को अपनी ओर खींच रहे हों। यह प्राण के कारण होता है। यदि आप अब फिर से हाथों को अलग-अलग करें, तो आप हाथों के पीछे दबाव अनुभव करेंगे, जो उल्टा प्रभाव पैदा करता है। यह भी प्राण है, क्योंकि प्राण सम्पूर्ण शरीर में निर्बाध रूप से प्रवाहित होता है।
प्राण नाड़ी-तन्त्र के माध्यम से संपूर्ण शरीर में प्रवाहित होता है। मानव-शरीर में 72,000 नाडियां हैं, इनमें से मुख्य रूप से तीन नाडियों का विशेष महत्त्व है:-
इडा, ‘चन्द्र प्रणाली‘, यह बायें नासिका-रन्ध्र (नथुने)से संबंधित है और अनुसंवेदी नाड़ी-तन्त्र है।
पिंगला, ‘सूर्य प्रणाली‘, यह दायें नासिका-रन्ध्र से संबंधित है और सहानुकम्पी नाड़ी-तन्त्र है।
सुषुम्ना, ‘केन्द्रीय नाड़ी‘, यह मेरुदण्ड से गुजरती है और केन्द्रीय नाड़ी-तन्त्र से संबंधित है।

 

By डॉ D K गर्ग

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