गुरु की सेवा करते हुए उसके सानिध्य में रहकर कर्म करना चाहिए

अवधेश पांडे

धनुष से वाण छूटा है तो लक्ष्य भेद करेगा या किसी अन्य स्थान पर लगेगा। विशेष परिस्थितियों में यह वापस आकर स्वयं को भी घायल कर सकता है। अतः किये गये कर्म का कुछ न कुछ कर्मफल निश्चित है।

जन्म लेने वाले सभी जीव जन्तु अपना कल्याण ही चाहते हैं। मनुष्य जन्म विशेष है अत: वह अपने कल्याण हेतु विशेष प्रयोजन भी करता है।

जैसे

1) बिना ज्ञान साधना के कर्म करता है।
2) ज्ञान साधना में लगा है, किन्तु कर्म नहीं करता।
3) स्वयं ज्ञान साधना नहीं करता किन्तु किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में कर्म करता रहता है।
4) स्वयं की ज्ञान साधना के साथ कर्म करता है।

उपर्युक्त क्रम संख्या 1 व 2 वाले मनुष्य को जहाँ पहुँचना चाहिए, वहाँ वह कभी नहीं पहुँच पाते हैं।

क्रम संख्या 1 या तो भटकता रहता है या कोई अन्य उसे अपने लाभ हेतु प्रयोग कर लेता है एवं उसके द्वारा कृत कर्म का परिणाम अनिश्चित होता है अर्थात हानि-लाभ आदि कुछ भी हो सकता है।

क्रम संख्या 2 को ज्ञान का अहंकार हो जाता है अत: अधिकतर उससे किसी को लाभ नहीं होता किन्तु उनका भी वास्तविक कल्याण नहीं हो पाता।

क्रम संख्या 3 यदि योग्य गुरु के सानिध्य में है तो आत्मकल्याण में शीघ्र सफल होता है। किन्तु वह कहाँ तक जायेगा, यह गुरु कृपा पर निर्भर है। इसलिए अपना कल्याण चाहने वाले जीव को योग्य गुरु की सेवा करते हुए उसके सानिध्य में रहकर कर्म करना चाहिए।

क्रम संख्या 4 का परम पद प्राप्त करना निश्चित है। यदि ज्ञान और कर्म में उसकी गति लगातार है तो उसके करने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता है। वह जो भी करता है, जीवमात्र के कल्याण के लिए ही करता है।

वासुदेव: सर्वम्

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