नवरात्र पर्व- वैज्ञानिक विश्लेषण

टेन न्यूज नेटवर्क

ग्रेटर नोएडा (02/04/2022): नवरात्रि साल में दो बार मनाई जाती हैं एक नवरात्रि अश्वनि नशत्र यानी शारदीय नवरात्र और दूसरा चैत्र नवरात्रि होती है।

पौराणिक मान्यता:- भगवान श्रीराम ने रावण से युद्ध करने से पहले अपनी विजय के लिए दुर्गापूजा का आयोजन किया था। वह मां के आर्शीवाद के लिए इतंज़ार नहीं करना चाहते थे इसलिए उन्होंने दुर्गापूजा का आयोजन किया और तब से ही हर साल दोबार नवरात्रि का आयोजन होने लगा। कहा जाता है कि इन दिनों में मन से मां दुर्गा की पूजा करने से हर मनोकामनाएं पूरी होती है।

नवरात्री में कन्याओं को देवी का स्वरुप मानकर हम उनकी पूजा करते हैं इन दिनों में शक्ति के नौ रूपों की पूजा अर्चना की जाती है इसलिए इस त्योहार को नौ दिनों तक मनाया जाता है और दशमी के दिन दशहरा के नौ रूप में भी मनाया जाता है !

नवरात्रि पर्व की वास्तविकता का विश्लेषण:- नवरात्र एक आयुर्वेदिक पर्व है। इस प्रथा के पीछे एक बड़ा आयुर्वेदीय वैज्ञानिक और स्वास्थ्य सम्बंधित तथ्य छिपा है । नवरात्रि हमेशा दो मुख्य मौसमों के संक्रमण काल में आती है। एक नवरात्रि अश्वनि नशत्र यानी शारदीय नवरात्र और दूसरा चैत्र नवरात्रि होती है। नवरात्रि होने के पीछे कुछ आध्यात्मिक, प्राकृतिक, वैज्ञानिक कारण माने जाते हैं। दोनों ही नवरात्रि का अपना एक अलग महत्व होता है।

प्राकृतिक आधार पर नवरात्रि को देखें तो ये ग्रीष्म और सर्दियों की शुरुआत से पहले होती है। प्रकृति के परिर्वतन का ये जश्न होता है। वैज्ञानिक रूप से मार्च और अप्रैल के बीच सितंबर और अक्टूबर के बीच दिन की लंबाई रात की लंबाई के बराबर होती है।वैज्ञानिक आधार पर इसी समय पर नवरात्रि का त्यौहार मनाया जाता है।
आयुर्वेद दो सिद्धांतो पर कार्य करता है
1. स्वस्थ् के स्वास्थ्य की रक्षा
2. रोगी के रोग की चिकित्सा

नवरात्रि पर्व पर नौ दिन के व्रत के पीछे का वैज्ञानिक कारण : हमारे शरीर में नौ द्वार है आँख नाक कान द्वार मुँह गुदा मूत्राशय ये नौ द्वार हमको स्वास्थ्य रखने में मदद करते है बहार से रोग के जीवाणु को शरीर में प्रवेश करने से रोकते है अच्छी वायु का सेवन करते है और शरीर से गंन्दी वायु और मलमूत्र को बाहर निकलते है सभी नौ द्वारो को शुद्ध रखना जरुरी है दुसरे एक ऋतु से शरीर दूसरी ऋतु में प्रवेश करता है जिसके लिए शरीर के नौ द्वारौ की मशीन को कुछ विश्राम देना जरुरी है नहीं तो मौसम बदलने के साथ नै बीमारियों की सम्भावना हो जाती है
इसलिए हमारे मनीषियों ने धार्मिक अनुष्ठान के साथ नौ दिन व्रत उपवास रखने का भी प्रावधान किया। इन नौ दिनों में यदि तरीके से केवल फलाहार करके उपवास कर लिया जाये तो शरीर से पिछले 6 महीने में एकत्रित विकार निकल जाते हैं और शरीर अगले 6 महीने के लिये स्वस्थ्य रहने के लिए तैयार हो जाता है।साथ में हम जो धार्मिक अनुष्ठान करते हैं उससे हमारी आत्मिक शुद्धि हो जाती है। यहाँ यह ध्यान रहे कि फलाहार यानि केवल (फल + आहार), ज्यादा से ज्यादा दूध बस। यदि आप फलाहार के नाम पे साबूदाने की खिचड़ी, कुट्टू के आटे की पूड़ियां, आलू और शकरकन्द का हलवा और खोवे की मिठाईयां खायेंगे तो उल्टा नुकसान होगा। उससे तो अच्छा है कि कोई व्रत न करके शुद्ध सात्विक हल्का भोजन कर लिया जाये।

नवरात्रि हमेशा दो मुख्य मौसमों के संक्रमण काल में आती है। यानि जब सर्दी के बाद गर्मी शुरु हो रही होती है तब चैत्र मास में और दूसरे जब गर्मी- वर्षा के बाद सर्दी शुरु हो रही होती है तब।
1. जाड़े के बाद
2. वर्षा के बाद

ये ही वो समय हैं जब हमारे बीमार पड़ने के ज्यादा अवसर रहते हैं। आपने देखा होगा डाक्टरों के यहाँ इसी समय सबसे ज्यादा मरीजों की भीड़ होती है ।

ऋतु परिवर्तन के दो मास बीतने वाले के अंतिम 7 दिन और आने वाले के प्रथम 7 दिन इस 14 दिन के समय को ऋतु संधि कहते हैं । इनके दोनों नवरात्रों यानी जाड़े और वर्षा ऋतु के बाद जब ऋतु परिवर्तन होता है यानी ऋतु संधिकाल होता है हमारी सभी अग्नि जठराग्नि और भूताग्नि कम होने के साथ साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी कमी आ जाती है और प्राप्त भोज्य सामग्री के दूषित होने की संभावना अधिक होती है। इन कारणों के चलते इस ऋतुसंधिकाल और इसके आसपास के समय में विभिन्न रोग होने की संभावना बेतहासा बढ़ जाती है। आप लोगों ने देखा भी होगा आजकल इस मौसम में ज्वर अतिसार आंत्र ज्वर पेट में जलन खट्टी डेंगू बुखार मलेरिया वायरल बुखार एलेर्जी आदि आदि कितने रोग पैदा हो जाते है।

इसलिए नौ दिन का व्रत लिया जाता है की सात्विक भोजन करें जिसमें प्याज लहसुन मांस अंडा आदि भी ना हो कम भोजन करें मन को शांत और ईश्वर की प्रार्थना करें की हमारे शरीर की रक्षा करे यह नवरात्र व्रत व्यवस्था आयुर्वेद के प्रथम सिद्धांत पर कार्य करता है जिसमें उचित मात्रा में स्वच्छ व ताजा आहार करने को बताया है। जिससे हमारी पाचक अग्नि नष्ट न हो और रोग प्रतिरोधक क्षमता बनी रहे। नौ दिन की इस तपस्या के बाद १० व दिन आता है जिसको दशहरा बोलते है दसवीं इन्द्री यानि दसवा है मन जिसने नौ इंद्रियों को हरा दिया इसलिए इस पर्व को दशहरा नवरात्र का व्रत कहते हैं।

नवदुर्गा के अमूर्त रूप क्या है ?

नवरात्रि कोई नव दुर्गा की नौ शक्तियों का कोई रूप नहीं हैं। शरद ऋतु की हल्की दस्तक के कारण हमारे आयुर्वेद के ज्ञाता ऋषि मुनियों ने कुछ औषधियों को इस ऋतु में विशेष सेवन हेतु बताया था। जिससे प्रत्येक दिन हम सभी उसका सेवन कर शक्ति के रूप में शारीरिक व मानसिक क्षमता को बढ़ाकर हम शक्तिवान ऊर्जावान बलवान व विद्वान बन सकें।

लेकिन इसका वास्तविक रूप विकृत कर अर्थ का अनर्थ ही कर दिया। हर दिव्यौषधि को एक शक्तिस्वरूपा कल्पित स्त्री का रूप दे दिया कल्पना में ही नौ शक्तिवर्धक औषधियों को स्त्री नाम देकर उनका वीभत्स आकार गढ़कर उन्हें मूर्त रूप में पूजना शुरू कर दिया।
नवदुर्गा के अमूर्त रूप के रूपक औषधि जिनका हमें सेवन करना चाहिए।

1 हरड़ 2 ब्राह्मी 3 चन्दसूर 4 कूष्मांडा 5 अलसी 6 मोईपा या माचिका 7 नागदान 8 तुलसी 9 शतावरी

प्रथम:- शैलपुत्री यानि हरड़ – कई प्रकार की समस्याओं में काम आने वाली औषधि हरड़, हिमावती है यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है, जो सात प्रकार की होती है।

द्वितीय:- ब्रह्मचारिणी यानि ब्राह्मी यह आयु और स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली रूधिर विकारों का नाश करने वाली और स्वर को मधुर करने वाली है। इसलिए ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है। यह मन व मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है और गैस व मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है।

तृतीय:- चंद्रघंटा यानि चन्दुसूर – चंद्रघंटा इसे चन्दुसूर या चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के समान है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है जो लाभदायक होती है। यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली हृदय रोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है।

चतुर्थ:- कुष्माण्डा यानि पेठा – इस औषधि से पेठा मिठाई बनती हैं। इसलिए इसको पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो पुष्टिकारक वीर्यवर्धक व रक्त के विकार को ठीक कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदयरोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है।

पंचम:- स्कंदमाता यानि अलसी यह औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात पित्त कफ रोगों की नाशक औषधि है। अलसी नीलपुष्पी पावर्तती स्यादुमा क्षुमा। अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरुः।। उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्त विनाशिनी है।

पष्ठम्:- कात्यायनी यानि मोइया – इसे आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा अम्बालिका अम्बिका इसके अलावा इसे मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह कफ पित्त अधिक विकार व कंठ के रोग का नाश करती है।

सप्तम्:- कालरात्रि यानि नागदौन – यह नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि है। इस पौधे को व्यक्ति अपने घर में लगाने पर घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह सुख देने वाली और सभी विषों का नाश करने वाली औषधि है।

अष्टम:- तुलसी सात प्रकार की होती है- सफेद तुलसी काली तुलसी मरुता दवना कुढेरक अर्जक और षटपत्र। ये सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ करती है व हृदय रोग का नाश करती है।

नवम्:- शतावरी – जिसे नारायणी या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल व वीर्य के लिए उत्तम औषधि है। यह रक्त विकार औरं वात पित्त शोध नाशक और हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। सिद्धिदात्री का जो मनुष्य नियमपूर्वक सेवन करता है। उसके सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं।

नौ तरह की वह दिव्यगुणयुक्त महा औषधियां निस्संदेह बहुत ही प्रभावशाली व रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाली जिससे हम ताउम्र हर मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्वयं को ढालने में सक्षम हुआ करते थे और निरोगी बन दीर्घायु प्राप्त करते थे। इस आयुर्वेद की भाषा में नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित व साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करतीं है। अतः मनुष्य को इन औषधियों का प्रयोग करना चाहिये ।

वेद में व्रत का अर्थ है:-
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छ्केयं तन्मे राध्यतां इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।( यजुर्वेद १दृ५ )

हे व्रतों के पालक प्रभो मैं व्रत धारण करूँगा मैं उसे पूरा कर सकूँ आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें मेरा व्रत है कि मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करता रहूँ। इस मन्त्र से स्पष्ट है कि वेद के अनुसार किसी बुराई को छोड़कर भलाई को ग्रहण करने का नाम व्रत है। शरीर को सुखाने का या देर रात्रि तक भूखे मरने का नाम व्रत नहीं है।

पर्व विधि:
१ इन दिनों अलप भोजन करें और संभव हो तो एक समय उपवास जरूर करे। शाम को भोजन जल्दी सूर्यास्त से पहले कर ले
२ इन दिनों प्रत्येक दिन के हिसाब से इन ओषधियो का सेवन करें
1 हरड़ 2 ब्राह्मी 3 चन्दसूर 4 कूष्मांडा 5 अलसी 6 मोईपा या माचिका 7 नागदान 8 तुलसी 9 शतावरी
३ दैनिक यज्ञ करें और मौसम के अनुसार सामग्री तैयार करें
४ इन्द्रियों को संयम में रखे ,कोई तामसिक भोजन न करें ,तथा काम ,क्रोध आदि दोषो से बिलकुल दूर रहे ,सूक्ष्म व्यायाम करे।
५ रात्रि में भजन ,धार्मिक चर्चा करें और इस प्रकार की चर्चा में भाग ले

 

By डॉ डी के गर्ग

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