रागदरबारी पचासवें वर्ष में
कालजई उपन्यास राग दरबारी के प्रकाशन के पचास वर्ष (2018 में) पूरे होने पर इसके प्रणेता श्रीलाल शुक्लजी को हृदय के अनंत गहराईयो से आदर के साथ स्मरण करने के साथ कुछ लिख रहा हूं .रागदरबारी जब पहली बार पढ़ा तो लगा की कोई इतना सटीक कैसे लिख सकता है? पढ़ने पर लगा की गांव की बकलोलई एवं रोजमर्रा की किचकिच और राजनीति का सीधा प्रसारण जैसे महाभारत के संजय सुना रहे हो तथा व्यास जी के शक्ल में शुक्ल जी उन्हें लिपिबद्ध कर रहे हो. पर पढ़ने पर यह भी महसूस होता है कि संजय आंख से देख कर भी तथा संवेदी उपग्रह की मदद से भी उतना वर्णन नहीं कर सकते जितना शुक्ल जी ने घुसकर लिख दिया है .साठ के दशक में लिखा गया यह उपन्यास कलयुग की कलकलाहट का वर्णन करता है ,जो तब भी बयान करता था आज तो और भी. समाज तथा उसके कारिंदो की धमाचौकड़ी का ऐसा खाका राग दरबारी में शुक्ल जी ने खींचा है कि सबकुछ सजीव लगता है . एक सौ नब्बे साल परतंत्र रहने वाला देश जब स्वतंत्र होता है तो विकास का मिश्रित मॉडल का प्रारंभिक 20 वर्षो में एक गांव में कैसा कचूमर निकलता है, उसका एफिडेविट है रागदरबारी। यूटोपियन टाइप की बात इस उपन्यास में नही है।जो कुछ है सबकुछ किसी न किसी बहाने आंख से गुजरा है।शुक्लजी डिप्टी कलेक्टर थे। डिप्टी कलेक्टर के रूप में खेत मेड नाली के झगड़े, प्रधानी और अन्य नाना प्रकार के चुनावों से सामना , विकास के लाभार्थियों के चयन से लेकर कई तरह के विकास सम्बधी जांचों का अनुभव तथा मजिस्ट्रेट के रूप में कचहरी यानी अदालत का कार्य ,शुक्लजी को इस उपन्यास को लिखने में बड़ी मदद किया है।कुछ क्रेडिट डिप्टी कलेक्टर की सेवा को भी है। गांव की गुटबंदी, निजी स्वार्थ की पराकाष्ठा तथा भ्रष्टाचार का खून में समाकर डी एन ए बनना सब कुछ दिखता है, इस उपन्यास में।यह सही मायनों में कालजई नहीं , युगजई या कहिए कई कालों की कालजई रचना है । जीवन के सफेद व काले पक्ष का वर्णन साथ साथ दिखता है ।मनुष्य का चरित्र तथा उसका समाज के सामने दोगलापन दोनों बराबर चलते हैं ।प्रजातंत्र ,प्लानिंग कमीशन ,थाना, तहसील पंचायत ,इंस्पेक्टर ,केस , डिप्टी ,वकील ,ट्रक ,ट्रक ड्राइवर का वर्णन जो साठ के दशक में हुआ था वह हू बहू आज भी इसी तरह विद्यमान है । आज के सोशल मीडिया पर छदम जागरूकता और प्रोपोगेंडा का दिखावा जो हमे दिखाई देता है ,वह राग दरबारी में शास्वत रूप में साठ के दशक में लिखा जा चुका है।रागदरबारी समाज का पोस्टमार्टम है । राग दरबारी समाज का कच्चा चिट्ठा भी है ।उत्तर भारत के आजकल के टिपिकल गांव बहुत खतरनाक हो गए हैं । मंडल -कमण्डल और 73 वे संविधान संशोधन के बाद गांव में घुसी रूट डेमोक्रेसी ने लोगों में गजब की गुटबंदी ला दिया है। अगर राग दरबारी आज लिखी जाती तो उसका नजारा कुछ और ही शानदार होता।खेत , चकरोड, मनरेगा ,धर्म, जाति ,राशन , की राजनीति आज सर चढ़कर बोल रही है .आज के गांव प्रधानी , विधायकी और संसदीय जीत के रेखागणित में उलझे है.रागदरबारी का एक बानगी देखिए –
"….. आप लोग देश का उद्धार इसी प्रकार करेंगे ?यह किंतु ,परंतु ,तथापि यह सब क्या है ?श्रीमान यह नपुंसकों की भाषा है . अकर्मण्य व्यक्ति इसी प्रकार अपने आप को और देश को वंचित करते हैं .आप का निर्णय स्पष्ट होना चाहिए. किंतु . परंतु.थू ."
चलते चलते एक बानगी और देख लीजिए –
"सभी मशीनें बिगड़ी पड़ी हैं. सब जगह कोई न कोई गड़बड़ी है. जान पहचान के सभी लोग चोट्टे हैं .सड़कों पर सिर्फ कुत्ते ,बिल्लियां और सूअर घूमते हैं हवा सिर्फ धूल उड़ाने के लिए चलती है .आसमान का कोई रंग नहीं .उसका नीलापन फरेब है .बेवकूफ लोग , बेवकूफ बनाने के लिए , बेवकूफो की मदद से ,बेवकूफो के खिलाफ बेवकूफी करते हैं ."
सचमुच आज कौन किस को बेवकूफ बना रहा है समझ में नहीं आता ।आज का जो परिदृश्य है उसमें हम हर दिन चित होते रहते हैं तथा बेवकूफी अब हमारे जीन में समा गई है ।अगर किसी दिन हम बेवकूफ नहीं बनते हैं तो हमें बहुत बुरा लगता लगता है। बेवकूफ बनना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है ।वास्तव में राग दरबारी शिवपालगंज गांव और उसके अंदर के ताने बाने का वर्णन है ,जो पंच वर्षीय योजना के प्लानिंग कमीशन के नेहरू मॉडल और सतत विकास को धत्त बोलकर मूल्यहीनता को पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। मूल्यहीनता ही इसकी विशेषता है और यही यथार्थ है। सरकारी कार्यालय का निष्ठुर और सामंतवादी रूप का अदभुत रेखाचित्र इसमे खींचा गया है।संस्थागत भ्रष्टाचार के विरूद्ध सत की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा भी दी है रागदरबारी ने। अगर रागदरबारी को सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए गीता कहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसमे सरकारी तबके के लिये ढेर सारे पाठ है ,जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।कमियों को जानना कोई बुरी बात नही होती। रागदरबारी पढ़ने से पता चलता है कि सिस्टम में खराबी बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र की एक विशेषता है। इसके एक चरित्र वैद्यजी के बारे में लिखा गया है कि वैद्यजी थे, है और रहेंगे इसी प्रकार रागदरबारी था, है और रहेगा क्योंकि लोकतंत्र का चक्कलस यू ही सदियों तक जारी रहनेवाला है। और इसकी प्रासंगिकता के क्या कहने जनाब, घटनेवाली नहीं है, यह चक्कलस की समानुपातिक है,बढ़ती ही रहेगीं।
शैलेंद्र कुमार भाटिया
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